Menu
blogid : 17681 postid : 1093519

इंद्रप्रस्थ आश्रम

bat-kahi
bat-kahi
  • 38 Posts
  • 25 Comments

xffddf
(कहानी प्रतीकात्मक है— कृपया इसी परिपेक्ष्य में पढ़ें)
वर्षों पूर्व की बात है—एक भारत कुमार नामी पुराने रईस हुआ करते थे, जिन्हे सभी परिचित बाबा साहेब कह कर पुकारा करते थे। समय के साथ धन वैभव तो जाता रहा था— बस सम्मान ही बचा था। उन्होंने किन्हीं कारणों से शादी नहीं की थी अपितु अपना सम्पूर्ण जीवन अनाथ बेसहारा बच्चों को समर्पित कर दिया था। कुछ पुश्तैनी ज़मीनों से जो आय थी वो सीमित ही थी लेकिन उनके रिश्तेदार एवं मित्र इस सामाजिक कार्य हेतु उनकी आर्थिक सहायता कर दिया करते थे। अपनी पुरानी हवेली को उन्होंने ‘इंद्रप्रस्थ आश्रम’ का रूप दे दिया था जहाँ एक अलग ही दुनिया बसती थी।
अपने अच्छे दिनों में उन्होंने सम्पूर्ण भारत की यात्राएं की थीं और अलग अलग जगहों से उन्हें ढेरों ऐसे अनाथ और बेसहारा बच्चे मिले थे जो अब उन पर ही आश्रित थे।
इंद्रप्रस्थ आश्रम में उन्होंने ढेरों आश्रम बना रखे थे… एक कक्ष को उन्होंने क्लासरूम बना रखा था जहाँ रोज़ सुबह वे स्वयं उन बच्चों को पढ़ाते थे। उन सभी बच्चों में उन्होंने कुछ बड़े अंतर पाये थे— जो शहरों के या किसी अच्छे कुल खानदान के बच्चे थे, वे कुशाग्र बुद्धि के, शारीरिक रूप से स्वस्थ और हर तरह के कार्य में दक्ष थे— जबकि जो गावों, दूरदराज क्षेत्रों के गरीब आदिवासी बच्चे थे, उनकी बुद्धि और क्षमता सीमित थी और कुपोषण की वजह से वे बाकी स्वस्थ बच्चों से हर क्षेत्र में काफी पीछे थे।
बाबा साहेब के पास उन्हें खिलाने, पहनाने, शिक्षा देने के सीमित संसाधन ही थे और बच्चे ज्यादा। उनकी कक्षा में बैठने की जगह भी कम थी— जिससे होता ये था कि जो कुशाग्र बुद्धि और स्वस्थ शरीर वाले बच्चे थे— वे पहले दौड़ कर कक्षा में जगह बना लेते थे जबकि कमज़ोर बच्चे पीछे रह जाते और कक्षा से बाहर रह जाने की वजह से शिक्षा से वंचित रह जाते।
ऐसे ही जब कभी बाहर से फल या मिठाई वगैरा आते तो वे भी उन्ही बच्चों के हाथ लगते जो अपनी बौद्धिक और शारीरिक दक्षता के कारण इसे पहले हासिल कर लेते।
कमज़ोर बच्चों में नेतृत्व की क्षमता न थी— अतएव उन्होंने तेज़ बुद्धि वाले एक बच्चे को मॉनिटर बना रखा था। जिस पर आश्रम के सभी दैनिक कार्य पूर्ण कराने का दायित्व होता, सहायता के लिए बाबा साहेब ने उसे अपनी टीम बनाने की छूट दे रखी थी और मॉनिटर ने अपनी टीम में भी अपने जैसे ही तेज़ बुद्धि वाले सक्षम बच्चों को ले रखा था।
बाबा साहेब आश्रम में शारीरिक और बौद्धिक सामर्थ्य को परखने के लिए प्रतियोगिताएँ भी करते थे, जिसमे सभी विजेता उन्हीं तेज़ बच्चों में से ही होते थे और इस तरह क्षीण बुद्धि और क्षीण शरीर वाले कुपोषित बच्चों को कहीं भी कोई जगह न मिल पाती थी।
इससे बाबा साहेब को बहुत दुःख पहुँचता था… वे एक-एक बच्चे को बड़े अरमान से आश्रम लाये थे, उन्हें सभी बच्चे सामान रूप से प्रिय थे। यह व्यवस्था उन्हें भेदभावपूर्ण लगती थी, जिसमे किसी कमज़ोर बच्चे को उसका हक़ मिलता ही नहीं था— जो वंचित था वो सदैव वंचित ही रहता और जिसे प्राप्त था वो सदैव पाता ही रहता… वे बड़े व्यथित मन से उन वंचित बच्चों को देखते सोचा करते थे कि वे क्या करें जिससे उन बच्चों को भी उनका अधिकार मिल सके।
उन्होंने अपनी पीड़ा कुछ मित्रों को बताई तो मित्रों ने एक सलाह दी और अगले दिन से आश्रम के नियम बदल गए।
बाबा साहेब ने तय कर दिया कि कक्षा में कुछ स्थान उन बच्चों के आरक्षित हैं जो कमज़ोर हैं, आश्रम के बाकी कामों में उनकी भूमिकाएं आरक्षित कर दी गयीं, मॉनिटर पद भी थोड़े थोड़े समय के लिए आरक्षित कर दिया गया कि उन कुपोषित कमज़ोर बच्चों को भी नेतृत्व का अवसर मिले और वे कुछ सीख सकें, मॉनिटर की टीम के सदस्यों के लिए भी ये निश्चित कर दिया गया कि उनमे कुछ कमज़ोर बच्चे सदैव रहेंगे ही… ये भी तय कर दिया गया कि बाहर से आने वाले फल मिठाई में एक निश्चित हिस्सा उन कमज़ोर बच्चों को मिले बाकि सामान्य बच्चे आपस में बाँट लें। प्रतियोगिताएं के सिलसिले में भी, जहाँ कुछ प्रतियोगिताओं में कमज़ोर बच्चों की कुछ प्रतिशत हिस्सेदारी तय कर दी गयी तो कुछ प्रतियोगिताओं को ही उन्ही कमज़ोर बच्चों के लिए आरक्षित कर दिया गया।
इससे आश्रम में दो तरह के परिवर्तन हुए— जहाँ उन कमज़ोर-कुपोषित बच्चों को हर क्षेत्र में भागीदारी मिलने लगी…वे खुश रहने लगे और फलने फूलने लगे— वहीँ सामान्य और स्वस्थ बच्चों में गहरी नाराज़गी फैल गयी. उन्हें लगता था कि ये उनके साथ अन्याय हुआ है. वे स्वस्थ हैं, सक्षम हैं, शारीरिक-बौद्धिक रूप से हर मापदंड पर खरे उतरते हैं तो उनकी जगह ऐसे कमज़ोर बच्चों को क्यों दी जा रही है जो योग्य ही नहीं।
बाबा साहेब उन बच्चों को लाख समझते कि वे बच्चे कमज़ोर हैं, इतने सक्षम नहीं कि खुद कुछ हासिल कर सकें— उनके लिए किसी को आगे आकर उन्हें सहारा देना ही होगा, जबकि उनके मुकाबले वे सामान्य हैं, स्वस्थ हैं, शारीरिक रूप से हर कार्य के लिए दक्ष हैं, उत्तम हैं, बौद्धिक रूप से सक्षम हैं, सबल हैं, अपने जीवन को सुखी, सुगम बनाने के लिए दूसरे और नए रास्तों की खोज कर सकते हैं। किन्तु सामान्य बच्चों की नाराज़गी कैसे भी न दूर होती।
किन्तु यही सत्य है— यह व्यवस्था कितनी भी अनुचित, त्रुटिपूर्ण, अन्यायपूर्ण क्यों न लगे— इसके सिवा कोई कारगर पद्धति नहीं जो पिछड़ों वंचितों को बराबरी के मौके दे सके— यही है आरक्षण का अकाट्य सत्य।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh