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एक नादान बूढ़ा

bat-kahi
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aazmi1
आज कल कुछ नेताओं ने वैज्ञानिकों के क्षेत्र में घुसपैठ शुरू कर दी है और मानवीय जीन पर शोध करने लगे हैं। हाल ही में एक समाजवादी बूढ़े वैज्ञानिक ने उन मुसलमानों का डी एन ए पता करने की ज़रूरत ज़ाहिर की है जो समाजवादी पार्टी को वोट न दें । उनसे पहले नेतागीरी से रिसर्च क्षेत्र में गए एक और राजनेता प्रोफ़ेसर नितिन गडकरी ने बिहारियों के जीन की जाँच की थी और अपना शोध कार्य पूरा करके पूरे देश के समक्ष यह निर्णय सुनाया था कि बिहार के डी एन ए में जातिवाद है।
वैसे डी एन ए से अनुवांशिकी, उम्र, पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति के हिसाब से पनपी प्रजातियों की स्थानीयता आदि का पता लगाया जाता था पर राजनैतिक प्रोफेसरों ने डी एन ए से जातिवाद और सच्चे धर्म की पहचान भी शुरू कर दी है।
अब प्रोफ़ेसर नितिन गडकरी को कौन समझाए कि जातिवाद कहाँ नहीं है … जब प्रतापगढ़ की रैली में निर्मल खत्री राहुल गांधी को पंडित राहुल गांधी कह कर सम्बोधित करते हैं तो जातिवाद होता है, मोदी जब अपनी रैलयों में खुद को पिछड़ी जाति का ‘लड़का’ बताते हैं जातिवाद होता है। वैसे जब कर्नाटक में विधानसभा चुनावों में खुद से छिटके लिंगायत समुदाय को वापस अपनी ओर खींचने के लिए भ्रष्ट येदुरप्पा को भाजपा अपने साथ मिलाती है तब भी लक्ष्य जातिवाद ही होता है, और जब जातियों के नाम पर बने छोटे छोटे दलों से वो तमिलनाडु में गठजोड़ करती है तब भी जातिवाद ही होता है और जब यू पी में पटेल वोटों के लिए अपना दल और दलितों में घुसपैठ करने के लिए इंडियन जस्टिस पार्टी के उदितराज को अपने साथ खड़ा करती है तब भी जातिवाद का झंडा ही बुलंद ही होता है। ऐसे में जातिवाद का इलज़ाम अकेले बिहार पर लगा देना तो बिहारियों के साथ अन्याय ही कहा जायेगा।

हलाकि जातीयता बुरी क्यों ? जाति आधारित राजनीति को हम इतने संकीर्ण नज़रिये से क्यों देखते हैं ? अगर जातियों के हिसाब से राजनीति की दिशा और दशा न बदली होती तो वर्षों से दबी कुचली, उपेक्षित और हाशिये पर सिमटी जातियों का सशक्तिकरण कैसे हो पाता ? माया, लालू,मुलायम,नीतीश वगैरह न होते तो क्या बरसों तक मात्र कांग्रेस का वोटबैंक बनी रहने वाली पिछड़ी जातियों के लोगों में कोई राजनैतिक चेतना जागृत हो पाती और वह राजनीति की मुख्यधारा में अपना अस्तित्व ढूंढ पाते ?
अब एक सपाई वैज्ञानिक ने मुसलमानों के डी एन ए की जाँच की ज़रूरत बताई है, जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि अमुक व्यक्ति सच्चा मुसलमान है या नहीं या फिर उसकी रगों में आर एस एस का खून दौड़ रहा है। बचपन में घर के बड़े बूढ़ों और मौलानाओं से सुना था कि कुफ्र और शिर्क करने से अपने ईमान पर आंच आती है और करने वाला मुसलमान नहीं रह जाता — अब अबु आसिम आज़मी नाम के नए नए बने ज्ञानी ने कुफ्र/शिर्क की लिस्ट में एक नया कलाप जोड़ दिया है कि सपा को वोट न देना भी कुफ्र/शिर्क की श्रेणी में ही आता है और अब हम मुसलामानों के डी एन ए की जाँच करके ही यह निष्कर्ष निकला जायेगा कि हम सपा को वोट न करने के बाद अब मुसलमान रह भी गए हैं या नहीं। अगर हमसे सपा को वोट न देने का गुनाह हुआ है तो यह गुनाहे कबीरा और सगीरा है और अब अबु आसिम आज़मी के हिसाब से हम मुसलमान कहलाये जाने योग्य नहीं।

सपा की दिक्कत यह है कि वह मुस्लिम चेहरों के नाम पर जिन दो-तीन मुखौटों का विज्ञापन करती है, उनमे बुक्कल नवाब और अबु आज़मी नाम के दो तो ऐसे बूढ़े हैं जिनकी सिर्फ उम्रें बढ़ीं है — दिमाग अभी प्राइमरी में ही कुलांचे खा रहा है और एक आज़म नाम के बयान बहादुर हैं जो अपने ज़ुबानी तीरों से कई बार अपनों को ही घायल करते रहते हैं। कई बार मन में यह ख्याल आता है कि मुलायम ने इन्हें क्यों पाल रखा है पर फिर मुलायम के बयान याद आते हैं, जो कभी मुज़फ्फर नगर के राहत शिविरों में रहते लोगों को षड्यंत्रकारी बताते हैं, तो कभी बलात्कार को, बच्चों से हो जाने वाली छोटी मोटी गलती बता देते हैं तो कभी मायावती के लिए सम्बोधन तलाशने की जद्दोजहद में पड़े नज़र आते हैं तो लगता है कि ठीक ही तो है — जैसा राजा होता है वैसे ही तो उसके सिपहसालार होंगे।
पर अबु आसिम आज़मी के बयान के बाद एक लेखक के तौर पर मेरी यह दिली इच्छा है कि मुसलामानों से पहले उनके डी एन आये की जाँच होनी चाहिए कि वे पृथ्वी पर पायी जाने वाली प्रजातियों में से ही हैं या हिन्दुस्तान में गंदगी फैलाने के लिए भेजे गए किसी दूसरे ग्रह के परग्रही?

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